शनिवार, 11 अक्तूबर 2008

विडंबना

चांदपोल चलोगे,
इस शब्द ने जैसे कालू के कानो मैं सहद घोल दिया, वह अभी घर से रिक्शा लेकर बड़ी चोपड पहुँचा ही था, ऐसा कभी - कभार ही होता थाकि पहुँचते ही सवारी मिल जाए, कई बार तो घंटों इन्तेजार करना पड़ जाता था,
हाँ क्यों नही, बेठो, वो चहकते हुए
बोला कितना लोगे
पांच रुपये
चांदपोल के पाँच रुपये
ज्यादा नही मांग रहा हूँ बाबूजी, बोहनी का वक्त है इसलिए पाँच ही मांग रहा हूँ, वरना तो छः रुपये से कम नही लेता,
रहने दे, सिखा मत, चार रूपये लेना है तो बोल, वरना अभी बस आने ही वाली है,
बस का नाम सुनते ही कालू कुछ दीला पड़ गया, फिर बोहनी करनी थी सो वह चार रुपये मैं सवारी को ले जाने के लिए तैयार हो गया, सवारी के बैठते ही कालू ने चला दिए पेडल पर पैर ,चांदपोल पहुंचकर सवारी जब उसे पाँच रुपये का नोट देने लगी तो उसने खुले नही होने की समस्या बताईसवारी ने बुरा सा मुह बनाया,
खुले नही है, मैं सब समझता हूँ, लेकिन मैं भी कम नही हूँ,
कहते हुए सवारी पास ही पान वाले कि दुकान पर चली गयी,पान वाले ने कुछ लिए बगेर खुले देने से मन कर दिया, इस पर सवारी ने कहा,
मैं कुछ खाता तो हूँ नही एक रुपये कुछ भी दे दे यार, वो रिक्शे वाले को किराया देना है,
पान वाले ने उसे एक गुटखा देते हुए खुले रुपये पकड़ा दिए, सवारी ने गुटखा फाड़ कर मसाला मुह मैं डाला कालू को चार रुपये पकडाये और चल दी अपनी राहकालू को ख़ुद पर ही हँसी आ गयी, एक रूपया जो उसका जायज हक़ थासवारी उसे देने के बजाय उससे एक ग़लत आदत की शुरुआत कर गयी, उसने आसमान की और देखाऔर चला दिए पेडल पर पैर,
शिवराज गूजर

2 टिप्‍पणियां:

mehek ने कहा…

insaan ki fitrat aisi hi hoti hai,khud ka chahe nuksaan ho magar dusre ka bhala nahi hona chahiye,bahut achhi sikh deti sundar kahani.

parul ने कहा…

hosele bdahne ke liye shukriya
acha likha h apne